आदिवासियों की जिंदगी बदलने के लिए लंबे समय से मुहिम में जुटीं श्रुति नागवंशी कहती हैं, “कुछ महीने बाद यूपी में विधानसभा चुनाव की मुनादी हो जाएगी। आदिवासियों पर सियासत करने वाले नेताओं का दिल तभी आता है जब चुनाव नजदीक होता है। सोनभद्र के आदिवासियों की ज़िंदगी में झांकने की कोशिश आज तक नहीं हुई। समाज का यह तबका तो आज भी नाम के लिए ही नागरिक है।”
सोनभद्र नरसंहार कांड के दो बरस गुजर जाने के बावजूद आदिवासियों के घाव पूरी तरह नहीं भरे हैं। इनके मन पर कई घाव ऐसे हैं जो सत्ताधीशों को नहीं दिख रहे हैं। मानवाधिकार के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट डॉ. लेनिन रघुवंशी कहते हैं, “विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर होने वाले विमर्श में आदिवासियों की घटती संख्या पर चिंता सिरे से गायब दिखती है। दुनिया की आबादी बढ़ना बहुत चिंताजनक है तो आदिवासियों की आबादी घटना भी कम फिक्र की बात नहीं है।”
रघुवंशी यह भी कहते हैं, “दुनिया तो बस यही जानती है कि मौजूदा समय में आदिवासियों, वनवासियों और दलितों के बीच जो धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा, रीति और रिवाज हैं वे सभी प्रभु श्रीराम की देन है। श्रीराम भी वनवासी ही थे। उन्होंने वन में रहकर संपूर्ण वनवासी समाज को एक दूसरे से जोड़ा और उनको सभ्य एवं धार्मिक तरीके से रहना सिखाया। बदले में श्रीराम को जो प्यार मिला वह सर्वविदित है। लोक-संस्कृति और ग्रंथों में जो कहानी लिखी है उसके मुताबिक राम आज इसीलिए जिंदा हैं कि वो ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर संपूर्ण अखंड भारत के दलित और आदिवासियों को एकजुट कर दिया था। आदिवासियों को भरमाने के लिए तमाम हिन्दूवादी संगठन उनके प्रति अनुराग तो दिखाते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था में इन्हें सबसे निचला पायदान भी देते हैं। भाजपा सरीखे सियासी दल आजकल आदिवासियों को क्यों हिंदू बताते घूम रहे हैं? अंदरखाने में झांकेंगे तो जवाब मिलता है- सिर्फ और सिर्फ वोट के लिए। नेताओं को पता है कि मौजूदा दौर में आदिवासियों की 10 करोड़ की सघन आबादी सियासत का रूख बदलने की भूमिका में है।”
सोनभद्र के ज्यादातर आदिवासियों की जिंदगी आज भी गुलामों जैसी है। इनके बच्चों के लिए न शिक्षा की कोई पुख्ता व्यवस्था है, न ही इनके लिए दवा-इलाज और शुद्ध पेयजल है। पहले कांग्रेस इनका उपयोग करती थी और अब भाजपा कर रही है। सोनभद्र के आदिवासियों पर बेहतरीन रपटें लिखने वाले पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, “उभ्भा नरसंहार कांड के बाद से यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आदिवासियों की बदहाली के लिए पूर्व की कांग्रेस सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे देश की हर समस्या के लिए पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह, कांग्रेस और नेहरू को जिम्मेवार ठहराते हैं। अब यह फिक्स मैच बन चुका है। सत्ता में बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। अब तो मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। आदिवासियों के हितों से अनजान यूपी के पूर्वांचल की मीडिया कहीं जज और तो कहीं डाकिए की भूमिका में नजर आती है। आदिवासी इलाकों में तो वह पत्रकारिता से अधिक वकालत लगी है, जिसके चलते समाज का आखिरी आदमी न्याय के लिए तड़प रहा है।”
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