कनहर के भाईजी महेशानंद
रामजी यादव
ओमप्रकाश यादव ‘अमित’
महेशानंद से मुलाकात होने से पहले उनकी नफीस और ठसकेदार
हिंदी उनके व्यक्तित्व का परिचय देती है जो वस्तुतः एक सामाजिक कार्यकर्ता के
अनुभवों से बनी है . उनसे मुलाकात होने पर उनके कान के लम्बे बाल अनायास ही अपनी
ओर ध्यान खींचते हैं और जाहिर है वे उन्हें काटते नहीं . उनके व्यक्तित्व में
सरलता और गंभीरता का इतना गहरा सम्मिश्रण है कि वे शायद ही कभी मज़ाक में कोई बात
लेते हों बल्कि हर मुद्दे पर संजीदगी से अपना पक्ष तैयार रखते हैं . महेशानंद
उत्तर प्रदेश के वाराणसी (अब चंदौली ) जिले की चकिया तहसील के एक गाँव के संपन्न
किसान के घर में पैदा हुए और बी एच यू में पढाई करने दौरान उनमें राजनीतिक रुझान
पैदा हुआ.अस्सी के दशक से शुरू हुआ यह राजनीतिक सफ़र धीरे-धीरे ग्राम स्वराज आन्दोलन
के रूप में बढ़ता रहा . कनहर में अपने आने के बारे में वे बताते हैं कि सन दो हज़ार
के आसपास उन्होंने दो बैलगाड़ियों परकुछ स्त्री-पुरुषों के काफिले के साथ आटा दाल
और नमक जैसी जरूरत की चीजें लेकर गाँव-गाँव में स्वराज यात्रा निकाली . उद्देश्य
था कि गाँव गाँव में रूककर लोगों से देश-दुनिया की बातें करेंगे और ग्राम स्वराज
के बारे में बताएँगे और जहाँ रात होगी वहीँ पड़ाव कर लेंगे . अनेक गांवों में यह
काफिला गया और लोगों की जिज्ञासा के केंद्र में आ गया . और जब इन लोगों ने अपना
भोजन बनाना शुरू किया तो गाँव के लोगों को लगा कि इस तरह सामाजिक उद्देश्य के लिए
समर्पित लोग अगर हमारे गाँव में खुद खाना बनायेंगे तो गाँव की क्या पत रह जाएगी !
लिहाज़ालोगों ने महेशानंद के सामने प्रस्ताव रखा कि आप लोग हमारे यहाँ खाना खाइए .
एक किसान परिवार से होने के नाते महेशानंद जानते थे कि पूरे काफिले के किसी एक ही
आदमी के घर खाने का क्या असर होगा . एक तो अकेले मेजबान पर आर्थिक बोझ पड़ेगा , दूसरे
उद्देश्य की सामूहिकता खतरे में पड़ जाएगी. इसलिए उन्होंने इसका एक उपाय निकाला—काफिले
से एक व्यक्ति को किसी एक परिवार में भोजन के लिए भेजते . वह व्यक्ति खाने के साथ
ही एक बने हुए प्रारूप में उस परिवार की सारी जानकारीभर कर लाता . इस प्रकार
यात्रा के दौरान मिलने वाले सभी परिवारों की बुनियादी सूचनाओं का एक बैंक बन गया .
इस यात्रा के ही पड़ाव अमवार, सुंदरी और भिसुर
आदि गाँव भी बने जो छत्तीसगढ़ से निकलने वाली कनहर औरपांगन नदियों के किनारे हैं और
अब कनहर सिंचाई परियोजना की डूब के केंद्र हैं . लगभग एक चौथाई शताब्दी तक इस
परियोजना के चालू होने कीख़बरें और अफवाहें सुनते और अपने डूबते हुए गाँव को बचाने कीधुंधली
उम्मीद को भी खोने के कगार पर पहुंचे ग्रामीणों ने महेशानंद की बातें सुनकर उनसे
गुजारिश की कि वे उन्हें कोई ऐसा वकील बताएं जो उनके डूबने वाले गांवों को बचाने
में मददगार हो .
कनहर सिंचाई परियोजना तब तक उत्तर प्रदेश
की एक राजनीतिक परियोजना बन चुकी थी . नारायण दत्त तिवारी और लोकपति त्रिपाठी से
लेकर मायावती तक ने इसके महत्त्व को देख लिया था और अवसरानुकूल लीड ले रहे थे .
यही नहीं स्थानीय राजनीति में इसके घेरे में आने वाले गाँव और लोग एक निर्णायक
भूमिका में आते जा रहे थे . बेशकइसके एक पलड़े पर डूबने वाले ग्यारह गाँव और दूसरे
पलड़े पर तथाकथित रूप से लाभान्वित होने वाले तकरीबन सौ गाँव थे . लाभ और
प्रतिरक्षा दोनों का राजनीतिक महत्त्व था . महेशानंद को लगा कि गांवों को बचाना
जरूरी है क्योंकि इनके डूबने का मतलब केवल जमीन का एक रकबा भर डूबना नहीं था बल्कि
जीवन, भाषा , संस्कृति और इंसानी व्यवहारों की अनेक बेशकीमती चीजों का भी हमेशा के
लिए डूब जाना होगा . लेकिन इसके लिए वे सीधे-सीधे कुछ कर नहीं सकते थे .
महेशानंद ने गाँव वालों से कहा कि वकील तो
एक हज़ार मिल जायेंगे जिनकी फीस दो और वे तुम्हारा मुकदमा लड़ते रहेंगे . लेकिनअगर
चाहो तो मैं तुम्हें ऐसे वकीलों से भीमिलवा सकता हूँ जो इस तरह की त्रासदी का
शिकार होने वालेगांवों की वकालत पूरी दुनिया की अदालत में कर रहे हैं . और इस
प्रकार कनहर में एक आन्दोलन का जन्म हुआ – कनहर बचाओ आन्दोलन .
विगत डेढ़ दशक में कनहर के किनारे के गाँव
महेशानंद की कर्मभूमि बन गए . जबमैं और ओमप्रकाश कनहर पहुंचे तो हमारे पास केवल
महेशानंद का नाम था . मुलाकात नहीं थी . लेनिन रघुवंशी ने जब उनका नंबर एस एम एस
किया तो हम डाला में थे और फोन करने पर महेशानंद ने बताया कि ट्रेन की सीट से गिर
पड़ने के कारण उनकी कमर में चोट लगी है औरवे छः महीने से बेडरेस्ट पर हैं . हमारे
लिए यह बुरी खबर थी क्योंकि कनहर में उनके अलावा हमारा कोई परिचित नहीं था लेकिन
अड़तालीस डिग्री में बाइक पर बनारस से डेढ़ सौ किलोमीटर चलकर यहाँ आने के बाद लौटना
बहुत डिप्रेसिव था . इसलिए हम बढ़ते गए . दुद्धी से अमवार पहुंचते-पहुँचते शाम हो
गई . 39वीं वाहिनी पी ए सी का खाली जा रहा ट्रक भी डरावना लग रहा था . डेढ़ महीने
पहले ही यहाँ गोली चली थी . अमवार बाज़ार से आधा मील पहले एक दो मंजिला मकान में
ढाई-तीन सौ पी ए सी के जवान मौजूद थे और दर्जन भर लोग उनके लिए शाम का भोजन तैयार
कर रहे थे . बाँध बनाये जाने के लिए बरसों पहले मंगाई गई बड़ी-बड़ी मशीनें सड़ी-गलीअवस्था
में पड़ी थीं और कनहर सिंचाई परियोजना के अधिकारियों और कर्मचारियों के लिए बनाई गई
कालोनी ढहा दी गई थी . आगे का दृश्य और भी उदास करनेवाला था . अमवार बाज़ार पूरी
तरह जनविहीन और तबाह था. केवल एक दरजी हामिद अली और दो और दुकानदार ही वहां मौजूद
थे . सुंदरी जाने वाले पुराने रस्ते को 18 अप्रेल के बाद बंद कर दिया गया था और
नया रास्ता पांगन नदी को पार करके बनाया गया था . हमने हामिद अली से रामविचार
गुप्ता और रामबिचार प्रधान के बारे में पूछा . थोड़ी शंका और जिज्ञासा से हमारे
बारे में दरियाफ्त करने के बाद उन्होंने हमें बताया कि वे भी सुंदरी गाँव के ही
हैं .
शाम गहराने के साथ ही हम पूछते-पाछते
रामविचार गुप्ता के घर पहुंचे . पता चला वे बारात में गए हैं . लेकिन जब हमने
महेशानंद का नाम लेना शुरू किया तो एक लड़के ने उन्हें फोन मिलाया और पांच मिनट में
वे हमारे सामने थे . लेकिन तुरंत वे खुले नहीं . इस बात की टोह लेते रहे कि क्या
सचमुच हम लोग महेशानंद के मित्र हैं या भाईजी का नाम लेकर आने वाले ख़ुफ़िया पुलिस
के आदमी हैं . संयोग अच्छा था कि ओमप्रकाश की बाइक के आगे चिन्हित पुलिसिया पट्टी
पर किसी का ध्यान उस समय नहीं बल्कि हमारे चलते समय सुबह गया वर्ना रामविचार
गुप्ता तुरंत वहां से चले गए होते . उत्तर प्रदेश में अक्सर लोग रुतबे के लिए
सरकारी शुभंकरों का उपयोग कर लेते हैं . मसलन किसी रिश्तेदार या गोतिया-दयाद के
पुलिस में होने पर लोग उ प्र पु की तीन पट्टियाँ अपने वहां पर बनवा लेते हैं .
अक्सरकपडा प्रेस करने वाला अपनी स्कूटर पर press लिखवा लेता है . कई लोग कमल ,
पंजा अथवा हाथी भी बनवा लेते हैं . बनारस में भरी दोपहरी में बाइक पर दूध के अनेक
बालटा लादे एक सज्जन ने तो नंबर प्लेट पर प्रशासन ही लिखवा लिया था . यह सब रुतबे
का खेल है लेकिन उस समय अगर पट्टी दिख जाती तो बिला शक हम पुलिस वाले मान लिए जाते
.
जहाँ उनका घर है वहां एल शेप में बस्ती है
. सभी मकान मिटटी और खपरैल के हैं और यह हिन्दू-मुस्लिम की संयुक्त बस्ती है .
अधिकांश मुसलमानों के द्वार पर गायें थीं और प्रायः सभी स्त्रियाँ एकजुट होकर
बतियाती और हैण्डपम्प से पानी भर रही थीं . अतिशीघ्र हम सबके कुतूहल के केंद्र में
थे और अधिकांश लोग सशंकित भाव से बात कर रहे थे क्योंकि ठीक डेढ़ महीना पहले गोली
चली थी जिसमें अकलू चेरो घायल हुए और पांच सौ अज्ञात लोगों पर मुकदमा दर्जथा. डेढ़
सौ लोग नामज़द थे जिनमें सुंदरी और भिसुर गाँव के पांच लोग जेल में डाल दिएगए थे .
अक्सर पुलिस इस बात की टोह लेती रहती कि गाँव में कौन बाहरी आदमी आया-गया अथवा कौन
किससे मिलता है . इसीलिए लोगों ने अपने फोन नंबर बदल लिए थे क्योंकि पूरे इलाके के
नंबर सर्विलांस पर थे. ज़ाहिरहैलोगबुरी तरह डरे हुए थे औरसावधानीपूर्वक बात कर रहे
थे . लेकिन जैसे जैसे उन्हें भरोसा होता गया कि हम स्वतंत्र लेखक के रूप में इस
इलाके के बारे में जानने आये हैं और वास्तव में महेशानंद को जानते हैं तो सभी
धीरे-धीरे खुलने लगे .
अपनी तकलीफों और संघर्षों के ज़िक्र के साथ
ही उन सबके भीतर से महेशानंद के लिए प्यार और सम्मान छलक पड़ता था . वे उनके बीच एक
शिक्षक और साथी के रूप में रहे हैं और कई बार बासीकढ़ी में उबाल की तरह कनहर सिंचाई
परियोजना में आने वाले राजनीतिक उफानके बाद सबकुछ नदी में बैठी गाद की तरह हो जाता
. जब जब उफान आता तो उजड़ने का खतरा बढ़ जाता लेकिन डूबनेवालों को समझ में नहीं आता
कि कहाँ जायें. नारायण दत्त तिवारी ने हर परिवार को पांच एकड़ कृषि भूमि देने का
ऐलान किया था लेकिन वह बयान पता नहीं कहाँ रिकार्ड होगा . हकीकत में उन्हीं के
शासनकाल में 1800 रूपया प्रति एकड़ मुवावजा देकर ज़मीनें ले ली गईं और बरसों तक उनपर
कुछ नहीं बना . क्या होगा इसका कोई पता नहीं था . इन हालात को देखते हुए महेशानंद
ने इस इलाके में रहकर आन्दोलन करने का मन बनाया . रामविचार गुप्ता कहते हैं कि भाई
जी ने इस मारे हुए मुद्दे को जीवित किया और उन्होंने एक पीढ़ी तैयार की . उनका
तरीका शांतिपूर्ण संघर्ष का था . स्वयं महेशानंद कहते हैं कि अगर आप सत्याग्रह
करते हैं तो सबसे पहले उस बात से आपका गहरा सम्बन्ध होना चाहिए जो सत्याग्रह के
केंद्र में है . कनहर बाँध को लेकर हमारी संलग्नता सिंचाई में उसके महत्त्व और
उपयोगिता के सवाल पर थी . कुछ पुराने अनुभवों और नए दौर की जरूरतों को देखते हुए
हमें लगता है लिफ्ट कैनाल अधिक उपयोगी माध्यम है . और सिंचाई परियोजना के बड़े
उद्देश्यों को पूरा करता है . लेकिन विशाल बाँध और उसमें होनेवाली डूब यहाँ की
आवश्यकता नहीं है . इसकी पृष्ठभूमि में पर्यावरण और पुनर्वास जैसे बड़े सवाल अनदेखे
रह जाते हैं.
महेशानंद इन मुद्दों पर लगातार जनसंवाद
करते रहे हैं . उन्होंने डूब क्षेत्र और उसके आसपास के गांवों के लोगों के जुटान
आयोजित किये और लगभग डेढ़ दशक की निरंतर कोशिश के बाद उन्होंने इन सवालों को यहाँ
के सबसे बड़े सवाल के रूप में स्टेब्लिश किया . कार्यकर्ताओं की एक कतार तैयार की .
उत्तरप्रदेश की वर्त्तमान सपा सरकार ने पिछले
वर्ष तीसरी बार यहाँ परियोजना के उद्घाटन का शिलालेख लगाया और इसका खर्च बढ़कर 2200
करोड़ हो गया . आनन-फानन में खनाई-खुदाई शुरू हुई और जब लोगों ने इसका विरोध किया
तब अर्धसैनिक बलों की तैनाती कर दी गई . इसका भयावह परिणाम 18 अप्रैल 2015 को
निकला . झारखंडके गढ़वा और छत्तीसगढ़ के सरगुजा दोनों ही नक्सल प्रभावित जिलों की
सीमाएं सुंदरी और भिसुर गांवों से लगती हैं और नक्सली के नाम पर दमन सबसे आसान है.
कुछ महीनों में कनहर इलाके में जिस तरह की स्थितियां बन गई हैं उसका परिणाम
निश्चित रूप से डरावना होगा . गाँव में अनेक लोग दलाली और मुवावजाखोरी पर उतर आये
हैं और अनेक लोग सत्ता के सामने समर्पण कर चुके हैं . बरसों से चली आ रही न्याय की
लड़ाई बिखर गई है . उग्र नारों और प्रतिवाद के हिंसक रास्तों पर ठेली गई लड़ाई के
नायक गुमशुदा हैं .
महेशानंद कनहर की रुदाद को देश के हर कान
तक पहुंचाना चाहते हैं . वे डुबाये जानेवाले गांवों का शोकगीत हर संवेदनशील
व्यक्ति तक पहुँचाना चाहते हैं . अपने बनारस स्थित घर में जब महेशानंद इस तरह का
एक सांगीतिक आयोजन करने की योजना बना रहे थे तब लगता था वे उम्मीद खो चुके हैं
लेकिन तुरंत ही वे इस संभावना पर चर्चा करने लगे कि कनहर को कैसे बचाया जा सकेगा ?
वह केवल एक भूभाग नहीं है बल्कि प्रकृति और मनुष्य के अलिखित इतिहास का बहुत
मूल्यवान हिस्सा है .
उनके पास सीमित साधन हैं. वे बाहर से लड़ाई
के थोपे गए तौर-तरीकों से नहीं लड़ना चाहते बल्कि चाहते हैं कि उस इलाके का हर
व्यक्ति अपने वर्त्तमान मुद्दों और भविष्य के सवाल को समझे और अपनी ताकत से लडे .
सामने हथियार बंद सत्ताएं हैं . परियोजना के रुपयों को हड़पने के लिए जीभ लपलपाते
राजनेताओं , अधिकारियों, कर्मचारियों और दलालों की बहुत बड़ी फ़ौज सक्रिय है .
अवसरों का फायदा उठाने की हजारों चालाकियों के बरक्स सीधे-सादे वे आदिवासी और
किसान हैं जो डूब के बाद अपने भविष्य को डूब गया मान चुके हैं .