http://www.sarokar.net/2011/04/डायन-शब्द-अब-भी-मेरी-कानों/
पूर्वी उत्तरप्रदेश में मानवाधिकार उल्लंघन की एक से एक दर्दनाक कहानियां लेनिन रघुवंशी सरोकार पर साझा कर रहे हैं. उनकी भेजी पुलिसिया उत्पीड़न, दबंगों की दादागिरी, सामंती शोषण, उंची जाति वालों के अत्याचार, मर्दों की हैवानियत, प्रशासनिक तानाशाही वग़ैरह की कहानियां पीडि़तों की ख़ुदबयानी के रुप में सिर्फ और सिर्फ सरोकार पर प्रकाशित हो रही है. लेकिन सायबर मीडिया के अपने अन्य हमराहियों समेत अन्य माध्यमों की तरह हम ऐसा कह कर अपने आप को तीस मार ख़ां साबित नहीं करना चाहते. न ही एक्सक्लुसिव का पट्टा टांगना चाहते हैं. सरोकार किसी होड़ में शामिल नहीं है. ‘पीआरपी’ (टेलीविज़न रेटिंग प्वॉयंट की तर्ज पर कुछ मॉडरेटर/संपादक/सीईओ/सीओओ … पोर्टल रेटिंग प्वॉयंट इज़ादने के फेर में लगे हुए हैं) की होड़ में भी नहीं. ये ज़रूर है कि जनमाध्यम बनने के लिए इसे कच्ची और पगडंडियों पर उतरने से भी परहेज नहीं है. नंगे पांव की तैयारी है. सरोकार के लेखक, रिपोर्टर, फ़ोटॉग्राफ़र, अनुवादक तथा संपादकीय टीम का एक-एक हिस्सा इसके लिए प्रतिबिद्ध है. बिना किसी पारिश्रमिक के. हम बाज़ार या सेठजी के दवाबों से मुक्त हैं. हम सत्ता की मुख़ालफ़त से भी नहीं कतराते. मुमकिन है कि कुछ पाठकों और यार-दोस्तों को यहां सौंदर्यबोध की कमी नज़र आती हो, भाषा सुगठित न लगती हो, शैली प्रवाहहीन दिखती हो; ढांचे में आकर्षण का अभाव झलकता हो, टेक्नॉल्जिकली लुंज-पुंजग़ी का एहसास होता हो … : उनके हर एहसास को सरोकार विनम्रतापूर्वक ग्रहण करता है, पर बदले में शर्मिंदग़ी नहीं महसूस करता. खांचों में फीट होने को सरोकार हरगिज़ अपनी प्रैक्टिस नहीं बनाएगा. कोशिश की जाएगी कि हाशिया, हाशिए के समाज और उनसे मुताल्लिक़ संघर्ष फ़ोकस बने रहें. हम अपनी पीठ थपथपाने से बचते रहे हैं. अपनी ‘ब्रैंडिंग’ (सायबर जगत के कुछ हमकर्मी इसके लिए बक़ायदा रणनीति बनाते हैं) के लिए भी हमने कोई नुस्खा, चाल, तिकड़म या स्ट्रैट्जी नहीं इज़ाद की. ये हमारे एजेंडे में नहीं है. हमें जहां पहुंचना है, पहुंच रहे हैं. जो असर होना है, हो रहा है. हां, एक-दूजे के कामों की सराहना हम ज़रूर करते हैं, ज अकसर फ़ोन या ई मेल पर हो जाता है. पब्लिकली भी किया जाना चाहिए. शुरू कर रहे हैं. सरोकार को अपने मानवाधिकार रिपोर्टर लेनिन पर फ़क्र है. न जुड़े होते तो सरोकार पर ऐसी कहानियां न प्रकाशित हो पातीं. यार-दोस्तों (पाठक हमारे लिए पारिवारिक सदस्यों से बढ कर यार-दोस्त हैं) को ये भी बता दें कि मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखने वाले कई लेखक पहली बार सरोकार के मार्फ़त हिंदी में आप तक पहुंच रहे हैं. ये उनकी प्रतिबद्धता है. फ्रै़ंक हुज़ूर और लेनिन उसी जमात से हैं. उम्मीद है ये जमात बड़ी होगी. आखिरी बात, राय और प्रतिक्रिया के एक-एक लफ़्ज़ लेखकों की हौसलाअफ़ज़ाई करते हैं. अपने अज़ीज़ यार-दोस्तों से ये दरख़्वास्त है कि आप इसमें कोताही और कंजूसी न करें. जो जी में आए कह डालें. ठीक उसी अंदाज़ में जो आपको ख़ुद के लिए भी पसंद हो. फिलहाल, लेनिन की इस ताज़ा प्रस्तुति सोमारी देवी की दास्तां उनकी ही जुबानी पर ग़ौर फरमाएं.
संपादक
डायन शब्द अब भी मेरी कानों में गूँजता है
पीडिता सोमारी देवी
मेरा नाम सोमारी देवी है। मेरी उम्र 40 वर्ष है। मेरे पति का नाम दिनेश गौड़ है। मेरे 3 लड़के हैं जो विवाहित है। बड़ा लड़का संजय है। वह सिर्फ़ साक्षर है। दूसरा लड़का रघुनाथ प्रसाद, तीसरा दीन दयाल है। सभी लड़के बाल बच्चेदार हैं। मैं अबकी बार वन विभाग में सदस्य बनी हूँ। मैं थोड़ा बहुत पढ़ी-लिखी हूँ। मेरे पास दो बीघे ज़मीन हैं, जिसमें मैं खेती-बारी करती हूँ। मैं ग्राम – बलियारीपुर, पोस्ट – म्योरपुर, थाना – दुद्धी, ब्लाक – म्योरपुर तहसील – दुद्धी, जिला – सोनभद्र की रहने वाली हूँ।
घटना का वह दिन आज भी भुलाये नहीं भूलता। 14 जनवरी 2010, मकर संक्रांति का त्यौहार था। सभी हंसी-खुशी से त्यौहार मना रहे थे। मैं घर से निकली, तभी याद आया गाय बाँधना है। उस समय लगभग 2 बज रहे थे। मैं गाय को खूंटे से छोड़ी और उसे बांधने घर से थोड़ी दूर सड़क पार बांधने जा रही थी। मेरे पति मेरे साथ थे। जो गाय को पीछे से हांक रहे थे। गाय को खूँटे से बांध कर मैं खड़ी थी तभी मेरे पास शिवनारायण गौड़ आया और मुझसे बातों-बातों में शरारत करने लगा।
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आखिर बात क्या है। शिवनारायण से इससे पहले मैं कभी बात नहीं की थी, ना ही उससे कोई झगड़ा या विवाद हुआ था।
जब तक मैं कुछ समझ पाती शिवनारायण मुझे डायन कहते हुये, बग़ल में जल रहे कौड़े में झोंक दिया। आग की लपटे थोड़ी धीमी थी। मेरी साड़ी पीछे के बगल़ बिल्कुल जल गई। मैं सुती पेटीकोट नहीं पहनी रही होती तो मेरा पूरा अंग जल जाता। मेरे पति दौड़कर मुझे बचाये। बायें और दाहिने पैर में और कमर के नीचे मैं जल गई थी। उस समय मैं दूसरे के सहारे घर तक आयी। शिवनारायण वहाँ से भाग गया।
इसी साड़ी में दरिन्दे ने जलता छोड़ दिया
मेरी बहुओं ने घाव पर मरहम लगाया और मेरी साड़ी बदली। मैं बार-बार यही सोच रही थी उसने मुझे डायन कहा। मुझे जलने की चिंता ज़्यादा नहीं थी, उस बात की थी जो मेरी कानों में बार-बार गूँज रही है, डायन कहे जाने की। उसके पहले किसी ने मुझे ऐसा नहीं बोला था। उस घटना को आज भी याद करती हूँ तो शरीर में बिज़ली जैसी दौड़ जाती है। सोचती हूँ, मेरे पति मौके़ पर न होते तो वह मुझे जान से ही मार डालता। रह-रह कर मुझे गुस्सा भी आता है।
उसने किसलिए मुझे डायन कहा मैं नहीं जानती, लेकिन समाज में उसने मेरी इज्जत उछाल दी है। सभी की जुबां पर है कि कोई तो बात रही होगी। जब इस बात को सूनती हूँ तो मन उदास हो जाता है। किस-किस के सामने से अपनी बेगुनाही साबित करूँगी। सोच-सोच कर आँखों में आँसू आ जाते हैं। घटना के दूसरे दिन मैं पति के साथ दुद्धी थाने गई। अपने साथ हुई घटना को बतायी और एफआईआर दर्ज हुआ। पुलिस वाले उसी दिन शिवनारायण को पकड़ कर थाने पर ले आये। थाने पर उसने अपनी ग़लती स्वीकार की और बोला, ‘मैं उस समय नशे में था, मुझे कुछ भी होश नहीं था’। उसने पैरों पर गिर कर माफ़ी माँगी। उस समय तो ऊपर से मैंने उसे माफ़ कर दिया, लेकिन मन अभी तक उसे माफ़ नहीं कर सका है। औरत की समाज में यही इज्जत मिली है, जिसको जो मन में आए, कह दें। अपनी बातों को, दुःख को बाँट कर इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही हूँ। मैं चाहती हूँ कि जिसने मेरा साथ यह ग़लत व्यवहार किया है उसके खिलाफ़ कार्यवाही हो और मुझे न्याय मिले।
(फ़रहत शबा ख़ानम और मीना कुमारी पटेल के साथ बातचीत पर आधारित)
डॉ0 लेनिन रघुवंशी 'मानवाधिकार जन निगरानी समिति' के महासचिव हैं और वंचितों के अधिकारों पर इनके कामों के लिये इन्हें 'वाइमर ह्युमन राइट्स अवॉर्ड', जर्मनी एवं 'ग्वांजू ह्युमन राइट्स अवॉर्ड', दक्षिण कोरिया से नवाज़ा गया है. लेनिन सरोकार के लिए मानवाधिकार रिपोर्टिंग करते है. उनसे pvchr.india@gmail.com पर संपर्क साधा जा सकता है.
Tags: डायन, पूर्वी उत्तरप्रदेश, लेनिन, सोमारी
Sunday, April 03, 2011
डायन शब्द अब भी मेरी कानों में गूँजता है
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