Wednesday, November 30, 2016

Golden thread of misery

“The condition of most #weavers in #Varanasi has deteriorated due to the lowering of wages and increasing health problems,” says Lenin Raghuvanshi, who heads Peoples’ Vigilance Committee on Human Rights (#PVCHR), a non-profit.

Of late, Varanasi has been witnessing a new culture: the widening influence of gaddidar or broker. Idris Ansari, a weaver from Lallapura area, says Varanasi had four markets—Chowk, Lohta, Peeli Kothi, and Bajardiha. While Peeli Kothi dealt mainly with pure silk saris, the others traded in silk as well as synthetic and cotton saris. “We had direct access to these markets where we would meet the buyers, get a sense of the designs they like, and sell our products,” says Idris. But these days the gaddidar coordinates with the buyers, decides the design, and thereby controls the market. They also provide capital to poor weavers for buying yarns and other raw materials, he says, adding that 500-600 gaddidars control the entire trade in Varanasi. Last year, Idris had to sell off his handloom machine after he failed to repay his loan to a gaddidar.

Weavers get exploited because they depend on the gaddidar for the sale and marketing silk fabrics, says Raghuvanshi.

Historically, says Raghuvanshi, sari making as a craft flourished in Varanasi due to the humid weather on the banks of the Ganga, considered ideal for working on silk. “The trade prospered as a result of the syncretic tradition between the Hindus and Muslims. Hindus traded the saris, while Muslims weaved them,” he adds. Post Independence, the trade shifted from the rich to poorer communities, such as the Dalits, and the scope of the exploitation increased.

While activists like Rao and Raghuvanshi still believe a positive intervention by the Union textiles ministry can help save the sector, most weavers say they will be obliterated if they have to depend on the gaddidars. “I am educating my grandchildren so that they can negotiate well for our community with the brokers. For years, they took advantage of our illiteracy and that needs to be fixed urgently,” says Bibi.

Read full article:


Saturday, November 12, 2016

Wednesday, November 02, 2016

दीपावली की अगली सुबह

                  दीपावली की अगली सुबह
                                       कवि ज्ञानेंद पति
फिर छूटा एक पटाखा
बच्चों के आनन्दित शोर के शिखर पर
एक पल को करता उन्हें भी स्तब्ध
चिहुँक कर बुदबुदाये बूढ़े दादा
अपनी आराम कुर्सी में कसमसाये
उड़ गई चिड़ियाए
घरो - के मुंडेरों पर से
आकाश में मंडराई
और मुहल्ले में जो एक –  दो वृक्ष हैं नीम और बेल के
उन पर बैठ गई
एक गोरैया ने – इन्ही गर्मियों में जिसने खोली थी आँख
पर घर – घर घुस कर जिसने पिंजरे को पहचाना सीख लिया था
पूछा बगल के एक उम्रदराज कबुतर से
यह सब क्या हो रहा है
जो कागज की चिड़िया उड़ाते हैं खुश – खुश
और हवा में गेंद उछालते हैं
वे नन्हे – मुन्ने बच्चे बौराये क्यों हैं आज
कबूतर ने समझाया, सुन री गौरा
यह ऐसे ही होता है हर साल
रात – रात भर उड़ने का सपना देखने वाले बच्चो के कंधो पर
जब किसी सुबह उन्हें तेल मलती हुई माँए देखती हैं
उग रहे पंखो के निशान
घबडा जाते हैं बड़े  
विशेषकर वे जो बड़ों में बड़े हैं  
यदी परियों से प्रेम हो जाये बच्चों को
यदि देवदूत बन कर चले जायें वे छोडकर घर
पंख फैला सुनील आकाश में
तब क्या होगा इन बड़ों का
कल को कौन उड़ायेगा उनके बमवर्षक विमान
उनकी हथियारों की दुकान में कौन माल बेचेगा – खरीदेगा
उनका युद्ध लड़ेगा कौन
उनके साम्राज्य के संतरी कहाँ से आयेंगे
उनके तख्त के पौवे ही टूट जायेंगे
भट्ठा ही बैठ जायेगा उनका
बेमौत मरेंगे मौत के सौदागर
इसलिए खिलौना बंदूकें खिलौना टैकें खिलौना बमवर्षक बनाते हैं वे
बड़े प्यार से बच्चों के हाथों में रखते हैं
देखो तो, तड – तड स्टेनगन चलाते हैं खिलौना सिपाही, बटोरते वाहवाही
कल को बम चला सको इसलिए लो, आज ये बमबच्चे – ये पटाखे चलाओ
जितना ही भयावह हो विस्फोटक उतना ही आनन्द महसूस करो
खून में घुलाओं बारूद
दिमाग में हिंसा
भले ही बच्चों का खून उसकी हरियाली सूखने से पहले
विष से नीला पड़ जाये
और दिमाग उजला होने से पहले हो जाये काला
और उनमें भी जो देखो शिवकाशी के बच्चों को
आँसुओं गले तुम्हारी टिमकती आँखे
आतिशबाजी के कारखानों में
सुलगती उंगलियों जलती आँखों
पटाखे के पेट में भरते
बारूद में मिला हुआ अपनी जिन्दगी का बुरादा
शिवकाशी के वे एक लाख बच्चे
एक लाख तीलियाँ हैं
एक लाख जिंदगियां एक लाख तीलियाँ
काश कि माचिस की डिबिया में
बारूद की मुठ्टी में
बंद तीलियाँ न होती वे
तो हम उन्हें
अपने घोंसलों में शामिल कर लेते
चिड़ियों में शामिल कर लेते
यदि होते न मानव –  बच्चे वे
पंख देते आकाश में उठा लाते, जब धरती पर
उनके जीने की जगह नही, मरने की जगह ही बची है
प्रौढ़ पत्थर – ह्रदय आदमी में बचा ही नहीं एक करुण कोना
उस रात
घरों के रोशनदानों में बसेरा लेने वाली चिड़ियाए
नही लौटी वहाँ
अपने पंजो से पेड़ की टहनी ही पकड़े रहीं  
क्या जाने जो उनमें से नई चिड़िया के दु:स्वप्न में
पके पीले फल भी अचानक बम की तरह फटने लगे हों उस रात
और पुरनियाँ चिड़ियाए
मानव - शिशुओं की खैर मनाती रही हों