दीपावली की अगली सुबह
कवि
ज्ञानेंद पति
फिर छूटा एक पटाखा
बच्चों के आनन्दित शोर के शिखर पर
एक पल को करता उन्हें भी स्तब्ध
चिहुँक कर बुदबुदाये बूढ़े दादा
अपनी आराम कुर्सी में कसमसाये
उड़ गई चिड़ियाए
घरो - के मुंडेरों पर से
आकाश में मंडराई
और मुहल्ले में जो एक – दो वृक्ष हैं नीम और बेल के
उन पर बैठ गई
एक गोरैया ने – इन्ही गर्मियों में जिसने खोली थी
आँख
पर घर – घर घुस कर जिसने पिंजरे को पहचाना सीख
लिया था
पूछा बगल के एक उम्रदराज कबुतर से
यह सब क्या हो रहा है
जो कागज की चिड़िया उड़ाते हैं खुश – खुश
और हवा में गेंद उछालते हैं
वे नन्हे – मुन्ने बच्चे बौराये क्यों हैं आज
कबूतर ने समझाया, सुन री गौरा
यह ऐसे ही होता है हर साल
रात – रात भर उड़ने का सपना देखने वाले बच्चो के
कंधो पर
जब किसी सुबह उन्हें तेल मलती हुई माँए देखती हैं
उग रहे पंखो के निशान
घबडा जाते हैं बड़े
विशेषकर वे जो बड़ों में बड़े हैं
यदी परियों से प्रेम हो जाये बच्चों को
यदि देवदूत बन कर चले जायें वे छोडकर घर
पंख फैला सुनील आकाश में
तब क्या होगा इन बड़ों का
कल को कौन उड़ायेगा उनके बमवर्षक विमान
उनकी हथियारों की दुकान में कौन माल बेचेगा – खरीदेगा
उनका युद्ध लड़ेगा कौन
उनके साम्राज्य के संतरी कहाँ से आयेंगे
उनके तख्त के पौवे ही टूट जायेंगे
भट्ठा ही बैठ जायेगा उनका
बेमौत मरेंगे मौत के सौदागर
इसलिए खिलौना बंदूकें खिलौना टैकें खिलौना
बमवर्षक बनाते हैं वे
बड़े प्यार से बच्चों के हाथों में रखते हैं
देखो तो, तड – तड स्टेनगन चलाते हैं खिलौना
सिपाही, बटोरते वाहवाही
कल को बम चला सको इसलिए लो, आज ये बमबच्चे – ये
पटाखे चलाओ
जितना ही भयावह हो विस्फोटक उतना ही आनन्द महसूस
करो
खून में घुलाओं बारूद
दिमाग में हिंसा
भले ही बच्चों का खून उसकी हरियाली सूखने से पहले
विष से नीला पड़ जाये
और दिमाग उजला होने से पहले हो जाये काला
और उनमें भी जो देखो शिवकाशी के बच्चों को
आँसुओं गले तुम्हारी टिमकती आँखे
आतिशबाजी के कारखानों में
सुलगती उंगलियों जलती आँखों
पटाखे के पेट में भरते
बारूद में मिला हुआ अपनी जिन्दगी का बुरादा
शिवकाशी के वे एक लाख बच्चे
एक लाख तीलियाँ हैं
एक लाख जिंदगियां एक लाख तीलियाँ
काश कि माचिस की डिबिया में
बारूद की मुठ्टी में
बंद तीलियाँ न होती वे
तो हम उन्हें
अपने घोंसलों में शामिल कर लेते
चिड़ियों में शामिल कर लेते
यदि होते न मानव – बच्चे वे
पंख देते आकाश में उठा लाते, जब धरती पर
उनके जीने की जगह नही, मरने की जगह ही बची है
प्रौढ़ पत्थर – ह्रदय आदमी में बचा ही नहीं एक करुण
कोना
उस रात
घरों के रोशनदानों में बसेरा लेने वाली चिड़ियाए
नही लौटी वहाँ
अपने पंजो से पेड़ की टहनी ही पकड़े रहीं
क्या जाने जो उनमें से नई चिड़िया के दु:स्वप्न
में
पके पीले फल भी अचानक बम की तरह फटने लगे हों उस
रात
और पुरनियाँ चिड़ियाए
मानव - शिशुओं की खैर मनाती रही हों
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