Friday, January 13, 2012

भूख और कुपोषण की काली हांडी

भूख और कुपोषण पर केन्द्रित हंगामा रिपोर्ट जारी करते हुए हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस बात पर शर्मिंदगी जाहिर की है कि देश के 42 प्रतिशत बच्चे आज भी भुखमरी के शिकार हैं। प्रधानमंत्री की निश्चित रूप से न सिर्फ उनकी बल्कि समूचे व्यवस्था और समाज की शर्मिंदगी भी है कि हम दुनिया के हर तीसरे भूखे बच्चे के अभिभावक हैं. लेकिन क्या प्रधानमंत्री के इतना कह देने भर से परिस्थितियों में बदलाव आ जाएगा? बच्चों के बीच काम करनेवाली मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता श्रुति नागवंशी मानती हैं कि नवउदारवादी नीतियां न सिर्फ बच्चों के मुंह से निवाला छीन रहा है बल्कि देश में एक वंचित वर्ग भी पैदा कर रहा है जो भारत को भूख और कुपोषण की ऐसी काली हांडी के रूप में बदलता जा रहा है जिसपर एक देश या समाज के रूप में हम कभी गर्व नहीं कर सकेंगे।

आज जिनके घर में दाना नहीं है क्या वे हमेशा से ऐसे ही थे कि अपने बच्चों की परवरिश न कर पायें और एक वक्त के निवाले के लिए उन्हें स्कूल की दिशा दिखा दें। देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश की दशा देखिए। यहां की अधिकांश जातियां या फिर वर्ग जिनके बच्चे आज कुपोषित हैं वे खुद लंबे समय से शोषण के शिकार होते रहे हैं। मुसलमानों, बुनकरो, मुसहरो एवम घसिया आदिवासी समुदाय के बीच काम करते हुए हमने पाया है कि ये जातियां या वर्ग नवउदारवादी नीतियों द्वारा शोषण के शिकार हुए हैं। इसे महज संयोग ही नहीं मानना चाहिए कि जो प्रधानमंत्री आज कुपोषण पर शर्म महसूस कर रहे हैं उन्हीं प्रधानमंत्री ने वित्तमंत्री रहते इन आर्थिक नीतियों का क्रियान्वयन किया था।
सांझा संस्कृति के लिए प्रसिद्ध बिनकारी 1990 के दशक के बाद नवउदारवादी नीतियो की शिकार हो गयी ! बनारस, टाण्डा-अम्बेडकर नगर, मऊ, मुबारकपुर– आज़मगढ, पिलखुआ- गाजियाबाद, सरघना-मेरठ के बिनकारी का धन्धा बन्द होना शुरू हुआ, जिससे लाखो की संख्या मे (वाराणसी मे तकरीबन एक लाख) बुनकरो ने सूरत और बंगलुरू की तरफ पलायन कर दिया। बिनकारी छोड़कर रिक्शा चलाना, गारा-मिट्टी का काम (मकान बनाने) आदि शुरू किया, वही शहरो से अपनी मंहगी जमीन बेचकर सस्त दाम वाली जमीन या किराये के मकान में शहर से बाहर की ओर बसना शुरू कर दिया। टाण्डा में दलित बुनकर के बच्चे प्रीतम की मौत हो या बनारस मे विशम्भर के बच्चों की मौत, यह तो जारी ही था, परंतु सबसे अधिक हालत खराब मुस्लिम बुनकरो की हुई। शहर से बाहर प्रवास कर गये मुस्लिम बुनकरो की नयी बस्ती, टोले धन्नीपुर गांव मे कुपोषण से होने वाली मौतों ने इस बात को पुख्ता कर दिया है कि भूख और कुपोषण से होनेवाली इन मौतों के मूल में नवउदारवादी आर्थिक नीतियां ही हैं।
आंगनवाडी एवम सार्वजनिक वितरण प्रणाली से दूर मुस्लिम बुनकरो के इन टोले मे खाद्य असुरक्षा शुरू हुई, जिसमे 14 बच्चे तीसरे और चौथे श्रेणी में कुपोषण के शिकार थे। अति कुपोषित शाहबुद्दीन को अस्पताल मे भर्ती कराया गया। यह मामला मानवाधिकार जननिगरानी समिति ने शासन – प्रशासन, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग एवम मीडिया के संज्ञान मे लाया, वही दूसरी तरफ संगठन के साथियों ने शाहबुद्दीन को उसके खून की कमी को पूरा करने के लिए अपना खून दिया, किन्तु इसके बाद भी उसकी शहादत हो गयी। संगठन ने पुन: शासन - प्रशासन पर दबाब बनाने के लिए मीडिया मे घटना को प्रकाशित कराते हुए पूरी दुनिया मे हंगर एलर्ट जारी किया। इस हस्तक्षेप के बाद कमिश्नर, जिलाधिकारी सहित विभिन्न अधिकारियो ने उस इलाके का दौरा किया और अति कुपोषित बच्चो को जिला अस्पताल मे भर्ती कराया, जहां डाक्टरो ने कहा – "बच्चों को चिकित्सा नही, पोषक खाद्य की जरूरत है।" पोषक भोजन नही मिलने पर इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ मिलकर भोजन के लिए जिला अस्पताल के सामने भीख मांगना शुरू कर दिया। इस अभियान से मीडिया मे बहस शुरू हुई, जिसके कारण धन्नीपुर में कई आंगनवाडी खुले। सभी गरीब मुस्लिम बुनकरो को लाभ और साथ ही राशन के लिए सफेद कार्ड मिला, एएनएम ने बस्ती मे आना शुरू किया। परिणामत: इस इलाके मे भूख और कुपोषण से होने वाली मौते बन्द हुई। आज केन्द्र सरकार ने छह हजार करोड़ का पैकेज बुनकरों के लिए दिया है जिसका फायदा निश्चित रूप से बुनकरों को मिलना चाहिए।
इसी तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश (पूर्वांचल) में 5 लाख आबादी वाले मुसहरों के पास न तो खेती योग्य ज़मीन है और न आजीविका के आय का साधन, मुसहर न ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जुड़े होते है और न इनके इलाके मे बच्चों के लिए आगंनवाडी केन्द्र होते है। जिस कारण बहुत से मुसहर परिवार पंजाब की ओर पलायन कर रहे है और अधिकांशत को ईट-भट्टों मे बन्धुआ मज़दूर बनना पडता है। एक दिलचस्प तथ्य मुसहरों के बारे में यह है की काफी संख्या में मुसहर धान एवम गेहूँ कटाई के समय पंजाब चले जाते है। कुछ कटाई मे लगे रहते है, सड़क किनारे किसी बाज़ार के करीब रहने लगते है और कटाई के बाद कई किलोमीटर जाकर खेतो मे यहां वहां बिखरा (दरारों मे फंसा) अनाज बटोरकर उस अनाज को बाज़ार मे बेचते है। बेचने के बाद सबसे पहले खाने का सामन खरीदते है। आस-पास गुरूद्वारा मिल गया तो वही खाना खा लेते है। जाहिर है वहां उनके बच्चो के लिए शिक्षा, दोपहर भोजन योजना (एम. डी. एम.), आंगनवाडी कार्यक्रम (आईसीडीएस) की कोई व्यवस्था नही होती है।
जब वहां जाने वाले मुसहरो से पूछा गया– " आप अपने घर से इतनी दूर क्यो जाते है," उन्होने बताया– "यदि खेतों में अनाज नही मिला तो गुरूद्वारा तो है, इन गुरूद्वारा में न तो छूआछूत है न ही पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरह जाति के नाम उंची जातियो का अत्याचार, न ही पुलिसिया उत्पीडन !" उनका कहना है कि मनरेगा में न तो समय से काम मिलता है, न ही काम करने के बाद पूरी मज़दूरी, यदि काम मिल गया तो मज़दूरी के लिए रोजगार सेवक, ग्राम प्रधान, बैंको का चक्कर लगाना पडता है। इस बीच तो हमारे बच्चे भूखे मर जायेंगे, इससे तो अच्छा है की खेतो मे बिखरा अनाज बटोरकर दिन भर मे एक समय भोजन तो मिल ही जाता है !"
मुसहरों के बच्चे भुखमरी और कुपोषण से सबसे अधिक बरसात में अकाल मृत्यु के शिकार होते है, क्योंकि उस समय न तो ईट - भट्टो पर बन्धुआगिरी से आधा पेट ही सही खाने का भोजन होता है, न मनरेगा का काम। मुसहरों की स्थिति व संघर्षो के बाद बेलवा, सकरा, आयर, अनेई जैसे गांवो मे आंगनवाडी खुली, ज़मीने मिली, छूआछूत-जातपात कम हुआ, मुसहरो की आवाज़ सुनी जाने लगी, उनके बच्चे स्कूलों से जुड़े, वहा एमडीएम मिला, एएनएम बस्तियों मे आने लगी। तो एक चमत्कार हुआ, बच्चो का कुपोषण और भुखमरी से मरना बन्द हुआ। बच्चे तीसरे, चौथे कुपोषण की श्रेणी मे नही है, उनकी आंखो मे आज भी हाड्तोड मेहनत और जिन्दगी जीने की लालसा है। सेना के ब्लैक कैट कमाण्डो को आधे पेट भोजन के बाद हाड़तोड़ मेहनत के साथ आशा भरी जिन्दगी जीने वाले मुसहरों से जीवन जीने की कला सीखनी चाहिए। जहां जहां सरकारी स्तर पर प्रभावी कार्यक्रम चले हैं और स्थानीय रोजगार की संभावनाएं पैदा हुई हैं वहां भूख और कुपोषण का प्रभाव कम हुआ है। यदि खाद्य सुरक्षाए बाल एवम महिला कल्याण की सभी योजनाए ईमानदारी से लागू हो, तब कुपोषण पर "हंगामा रिपोर्ट" के हंगामा पर रोक लगाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के चुनाव मे देखना है की जाति और धर्म पर राजनीति करने वाले और राष्ट्रवाद के नारे लगाने वाले कब बच्चों के कुपोषण और भुखमरी को अपना चुनावी मुद्दा बनाते हैं।
(श्रुति नागवंशी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)

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