मोदी सरकार के पहले बजट में मदरसों के आधुनिकीकरण के लिए सौ करोड़ रुपए निर्धारित किए गए तो सवाल उठा कि इन पैसों से हासिल क्या होगा?
मदरसे मुसलमानों को कट्टरपंथी बनाते हैं. जेहादी पैदा करते हैं. यहां पढ़ने वाले बच्चे सिर्फ़ मस्जिदों-मदरसों के मौलवी ही बन पाते हैं. ऐसी ही कई और धारणाएं हैं, जो मदरसों के बारे में आम हैं.
लेकिन क्या ये धारणाएं मदरसा शिक्षा की पूरी हक़ीक़त हैं? इसी सवाल को ज़हन में लिए मैं पहुंचा जौनपुर के कई मदरसों में… यहां न सिर्फ़ ये धारणाएं टूटी, बल्कि मदरसा शिक्षा के ज़रिए संभव एक सामाजिक क्रांति की झलक भी दिखी.
ज़िला जौनपुर के जलालपुर ब्लॉक मझगंवा कला गांव में है मदरसा अब्र-ए-रहमत… 1985 से संचालित इस मदरसे में 156 बच्चे पढ़ते हैं. 15 रुपए महीना की फ़ीस में यहां आठवीं कक्षा तक की शिक्षा दी जाती है.
यहां बच्चे सिर्फ़ क़ुरान की तिलावत ही नहीं, बल्कि नृत्य और योगा की शिक्षा भी लेते हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस मदरसे में गंगा-ज़मुनी तहज़ीब अपनी पूरी पाक़ीज़गी में नज़र आती है.
इस मदरसे में साठ प्रतिशत छात्र ग़ैर मुस्लिम हैं और 35 फ़ीसदी लड़कियां भी हैं. हालांकि ग़ैर मुस्लिम बच्चों पर यहां इस्लामी शिक्षा थोपी नहीं जाती है.
ये अलग बात है कि इस मदरसे में पढ़ने वाली हिंदू बच्चियां नात-ए-पाक़ को उसी संजीदगी और पाक़ीज़गी से पढ़ती हैं जैसे मुस्लिम बच्चे पढ़ते हैं.
ये जानना सुखद था कि यहां के बच्चों के ख़्वाब डॉक्टरी और सेना की वर्दी तक पहुंचते हैं. 12 साल के परवेज़ से जब मैंने पूछा कि क्या बनना चाहते हैं तो उसने बिना वक़्त गवाए कहा कि मैं आईपीएस बनना चाहता हं. ये भी एक बड़ी बात है कि 12 साल के बच्चे जानते हैं कि आईपीएस क्या होता है. उनकी क़िस्मत में क्या है ये वक़्त बताएगा. लेकिन हौसले बताते हैं कि उनकी परवाज़ ज़रूर ऊंची होगी.
हेमंत सरोज अब से पहले एक कान्वेंट स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन उन्होंने भी इस मदरसे में दाख़िला लिया है. सरोज कहते हैं, “यहाँ पढ़ाई मेरे पुराने स्कूल से अच्छी होती है, इसलिए मैं यहां आया हूं.”
अभिषेक के पिता फल बेचते हैं. चौथी क्लॉस में पढ़ने वाले अभिषेक के गाँव में कोई दवाख़ाना नहीं है. इसलिए वो डॉक्टर बनना चाहते हैं. अभिषेक पूरी मासूमियत से कहते हैं कि मैं सिर्फ पैसा कमाने वालों से ही फ़ीस लिया करूंगा.
चौथी क्लॉस के ही शशिकांत के पिता ड्राइवर हैं और उनका ख़्वाब है सेना की वर्दी पहनकर अपने परिवार का नाम ऊँचा करना. रोहन भी पुलिस इंस्पेक्टर बनना चाहता है. रोहन के अलावा उसका एक भाई और दो बहने भी मदरसे में ही पढ़ती हैं.
सहनपुर गांव के मकतब मदरसा क़ादरिया ने यहां की लड़कियों के लिए नए रास्ते खोले हैं. चौदह साल की शबाना कभी स्कूल नहीं गईं थी, लेकिन मकतब खुलने के बाद अब पढ़ाई कर रही हैं. वो अब अध्यापिका बनना चाहती हैं. सानिया की भी यही कहानी है. वहीं नाज़िया गांव के बच्चियों के लिए सिलाई सेन्टर खोलना चाहती है.
12 वर्षीय शाहरूख खान को सलमान खान पसंद है. लेकिन वो डॉक्टर बनना चाहता है. फिल्मों के बारे में वो बताता है कि उसने अभी पिछले दिनों सलमान खान की ‘जय हो’ फिल्म देखी थी. पूछने पर इस फिल्म से आपने कुछ सीखा तो वो बताता है कि हां! हर आदमी को तीन लोगों की मदद करनी चाहिए. मैं भी अपने दोस्तों की मदद करता हूं. और आगे भी मदद करना चाहता हूं.
शमशेर के घरवालों का यूं तो ठीकठाक कारोबार है, लेकिन उन्हें बच्चों के ज़हन को इल्म से रोशन करना पैसा कमाने से बड़ा काम लगता है. यही वजह है कि वे इस मकतब में बच्चों को पढ़ाते हैं.
स्नातक तक पढ़े शमशेर कहते हैं कि उनके पास सिर्फ़ इल्म की ही दौलत है और वो इसे बांटना चाहते हैं. इसीलिए जैसे ही मानव अधिकार जन निगरानी समिती इन्हें मदरसे के बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा वो फौरन तैयार हो गए. शमशेर हर सुबह बच्चों के घर-घर जाते हैं और उन्हें बुलाकर मकतब लाते हैं.
ज़्यादातर छात्र भाट बिरादरी के हैं, इसलिए पढ़ाई पर ज़्यादा ज़ोर नहीं है. नाच-गाना करने वाले इस समुदाय के बच्चे मुश्किल मकतब तक लाए जाते हैं.
जौनपुर के कई मदरसों से लौटने के बाद मेरे ज़हन में एक बात तो साफ़ हो जाती है कि ये मदरसे न सिर्फ़ वंचित तबक़ों के बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं, बल्कि समाज के अलग-अलग हिस्सों को क़रीब लाने में अहम भूमिका भी निभा रहे हैं.
उम्मीद है कि अब जब मदरसा शिक्षा पर सवाल उठाए जाएंगे तो ऐसे मदरसों के उदाहरण जवाब बनेंगे. (आगे भी जारी….)
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