हम ऐसे समाज में रह रहे है जहाँ महिलाये अपने
प्रति हो रहे किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार, हिंसा का विरोध करने की स्थिति में
नही है फिर चाहे वे शिक्षित हो या अशिक्षित शहर में रह रही हो या गाँव में | यों
तो भारत की प्राचीनतम संविधान मनुस्मृति के अनुसार सभी जाति की महिलाओं की स्थिति
निम्न दर्जे की है किन्तु जातिवादी वर्ण –व्यवस्था में दलित, अल्पसंख्यक एवं गरीब
महिलाओ की स्थितियां कंही अधिक बदत्तर है | दलित,अल्पसंख्यक ,एवं गरीब महिलाये
पितृसत्ता, गरीबी, व जातीय व धार्मिक
भिन्नता के आधारों पर भेदभावपूर्ण रवैये के कारण कहीं अधिक यातना और हिंसा की शिकार हो रही है | किसी भी जाति या वर्ग की
महिला के साथ हिंसा, बलात्कार या अमानवीय व्यवहार की दुर्घटना हो ,एक सभ्य और प्रगतिशील समाज के लिये इससे
बुरा दुर्घटना और कुछ नही हो सकता | लेकिन भारत में दलित, अल्पसंख्यक और निम्न आय
वर्ग की महिलाओं के साथ इस प्रकार की घटनाओं की प्रक्रति व प्रवित्ति बहुत भयानक
रूप में दिखाई देता है |आज भी आदिम दास
युग की भाति महिलाओं को डायन करार देकर उन
पर हिंसा व जान से मार देने की लगातार सामने आ रही है,लेकिन इन की रिपोर्ट नही दर्ज की जा रही है
| महिला यदि बहुत हिम्मत कर विरोध की आवाज उठाती
भी है तो न सिर्फ महिला को सामाजिक बहिष्कार दंश झेलना पड़ता है बल्कि महिला के
पुरे परिवार, बिरादरी, को सामाजिक बहिष्कार का दंश झेलना पड़ता है | महिलाओ या
बच्चियो पर हिंसा की घटनाओं में यह चिंता किये बिना कि वे किस प्रकार की मानसिक यातना से जूझ रही है ,
उन्हें किस प्रकार की सुरक्षा या मदद की
आवश्यकता है | बल्कि पूरा समाज हो रही हिंसा पर चुप्पी बनाये रखने कोई विरोध न
करने का दबाव डाल कर हिंसा को ही बढ़ावा देता है | ऐसे में महिला के साथ खड़े ,सहयोग
दे रहे महिला अधिकारों के पैरोकारो पर भी हमले किये जाते है जिससे वे किसी प्रकार
का सहयोग न दें | हर तरह से महिला को अपने
कदम पीछे खीचने को बाध्य किया जाता है |
पुलिस थाने शिकायत दर्ज कराने पहुची महिलाओ से अपराधियों
की तरह व्यवहार किया जाता है रिपोर्ट लिखवाने गयी महिलाओ को परिवार सहित घंटो थाने
में बैठा कर हतोत्साहित किया जाता है फिर सुलह करने का दबाव बनाया जाता है | यहाँ
तक थानों में रिपोर्ट दर्ज कराने गयी महिलाओं और बच्चियों के साथ संरक्षण में
बलात्कार की घटनाये बहुतायत है | महिला के साथ घटी दुर्घटना की जिम्मेदारी महिला
पर ही दी जाती है | थाने में पीड़ित महिला को उत्पीडक के साथ ही रखा जाना आम बात है
जबकि इससे महिला बार –बार उत्पीडित हो रही होती है | उत्पीडक की उपस्थिति में
भयानक हादसा बार –बार मन - मष्तिष्क में उभरता है जिसके सन्दर्भ में कोई आंकलन नही
किया जा सकता है |
महिला और उसके परिवार को शर्मिंदा किये जाने की
प्रवित्ति कंही गहरी है जबकि उत्पीडक को कानून तोड़ने का बोध भी नही कराया जाता |
जानबूझ कर पुलिस या किसी जांचकर्ता द्वारा हिंसा की घटनाओ में देरी से जाँच शुरु
की जाती है, इस बीच साक्ष्य मिटाने पूरा अवसर अपराधियो को मिल जाता है | महिला
अधिकारीगण और पुलिसकर्मी भी
पुरुषसत्तात्मक समाज की ही पोषक है वे पीड़ित महिलाओ से पुरुष पुलिसकर्मीओ की तरह
ही व्यवहार करतीं है | पीड़ित महिला का
समर्थन इस बात पर निर्भर करता है कि वे जांचकर्ता को कितना सुविधा शुल्क दे सकते
है |
यों तो न्यायिक प्रणाली में सभी प्रकार की घटनाओं
में देर से फैसले आने की व्यापक समस्या है, न्यायालय स्वयं न्यायधिशो विशेषकर महिला न्यायधिशो एवं संसाधनो के अभाव
के संकट से ग्रस्त है | लेकिन महिलाओं के प्रति हिंसा की दुर्घटनाओ में न्याय
व्यवस्था कही ज्यादा सुस्त और असंवेदनशील तरीके का रुख अपनाता है | न्याय में देरी , लम्बी तारीखों से निराश पीड़ित
महिलायें न्यायालय के बाहर उत्पीडक की शर्तो पर सुलह करने को बाध्य है | फैसले हो
रही देरी का पूरा –पूरा फायदा उत्पीडक पक्ष उठता है | हिंसा की शिकार महिलाओं के वकील भी उत्पीडक पक्ष
के साथ मिलकर केश की पैरवी में ढीला ढाला रुख अपनाते है |
न्यायालय में महिला अधिकारों के पैरोकार
प्रतिनिधि वकीलों का रवैया आज भी परम्परावादी है, वे स्वयं महिलाओं के हिंसा से
बचाव के नये कानूनों अनभिज्ञ है , जिससे वे आज भी सिविल कानून में केश दर्ज कराने
के बजाय पेचीदे धाराओ में दर्ज कर न्यायिक प्रक्रियाओं और कठिन बना देते है |
राष्ट्रीय और राज्य महिला आयोग द्वारा भी महिला अधिकारों के संरक्षण की दिशा में
विशेष सार्थक और सतत प्रयास नही किये जा रहे हैं | महिला आयोग स्वयं पितृस्तात्म्क
विचारों से पीड़ित है महिला आयोग के सदस्यों की चयन प्रक्रिया पूण: अव्यवहारिक व
अवैज्ञानिक है, केंद्र या राज्य की
सत्ताधारी पार्टियों की प्रतिनिधि महिलाएं ही आयोग की सदस्यों में चुनाव किया जाता
है | इन सम्मानित सदस्यों के पास महिला
अधिकारों की बुनियादी दृष्टिकोण का आभाव है, जो उनके द्वारा लिये गये निर्णयों प्रयासों
में स्पष्ट परिलक्षित होता दिखाई देता है | जो मामले महिला आयोग के संज्ञान लाये
जाते है उनमें बहुत कम मामलों में ही आयोग पहल कर पाता है |
सामाजिक
सुरक्षा और विकास की योजनाओ में भी दलित, अल्पसंख्यक व गरीब महिलाओ की पहुँच समता
और समावेश के मूल्यों पर आधारित नहीं होने के कारण वे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष दोनों
तरह से हिंसा का शिकार हो रहीं है | महिला स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिये जिम्मेदार
सरकारी संस्थाओ में इन महिलाओं से भेदभावपूर्ण, उपेक्षात्मक कई बार हिंसक व्यवहार,अवैध
धन उगाही और सुविधा शुल्क न दे पाने के कारण महिलाओं को अपनी जान तक गंवाना पड़ रहा
है
आवश्यकता इस बात कि है की सरकारें महिला हिंसा की
वीभत्स घटनाओं के इंतजार के पहले समस्याओ एवं परिस्थितियों की पहचान कर नीतियां, कानून,व
योजनायें बनाये |महिला हिंसा से बचाव व सुरक्षा के लिए ठोस व्यवहारिक प्रयासों में
सामुदायिक सहभागिता के दृष्टी से सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओ के
प्रतिनिधिओ को शामिल करते हुये सतत निगरानी एवं मूल्यांकन किया जाना चाहिये|
Article by Shruti Nagvanshi,Savitri Bai Phule Women
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